"संथाल हुल” की जब चर्चा होती है तो जाहिर है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की चर्चा भी होती है और इस संग्राम के पहले सेनानी की बात भी होनी शुरू हो जाती है। यह दर्जा मंगल पांडे को दिया जाता है जबकि हकीकत यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सेनानी तिलका मांझी थे। वजह यह कि 1771 से 1784 तक तिलका मांझी ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया। उन्होंने कभी भी समर्पण नहीं किया, न कभी झुके और ना ही डरे।
ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल पर कब्जे के बाद किसानों से लगान वसूलने के लिए जमींदारी प्रणाली दुरुस्त की, जिसके बाद साहुकारों की भी एक बड़ी जमात तैयार हुई, जो लगान देने के लिए किसानों को सूद पर कर्ज देते थे और बदले में उनकी जमीन जायदाद हड़प लेते थे। जमींदारों के करिंदे लोगों से जबरन लगान वसूलते थे। जो लगान देने की स्थिति में नहीं रहते, उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी जाती थी। यह सब किशोरावस्था से ही तिलका देखा करते और लोगों को लगान न देने को प्रेरित करते थे। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही तिलका को मांझी की उपाधि दे दी गई। तिलका मांझी ने क्षेत्र के संथालों को एकत्र किया और अंग्रेजों, जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ जंग छेड़ दी। यह लड़ाई 1771 से 1784 तक चली। 1784 में तिलका मांझी की सेना पर जबरदस्त हमला हुआ, जिसमें उनके कई लड़ाके मारे गए। बताया जाता है कि उसके बाद अंग्रेज, तिलका मांझी को चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाए। मीलों घसीटे जाने के बावजूद वे जिंदा रहे। अंग्रेजों ने 13 जनवरी 1785 को भागलपुर के एक चौराहे पर एक बरगद के पेड़ से लटकाकर उनकी हत्या कर दी।
बिहार के मोकामा से साहबगंज तक संथालों का राज था। संथालों ने मुगलों को कभी भी टैक्स नहीं दिया था। अंग्रेज कंपनी के जमींदारों, साहूकारों और दलालों द्वारा इनसे लगान वसूलने और अपनी सत्ता इन पर स्थापित करने के कुप्रयास का ही नतीजा था संथाल हुल।
तिलका मांझी की शहादत के बाद अंग्रेजों सहित जमींदारों, साहूकारों और उनके दलालों का मनोबल बढ़ गया, वहीं संथाल जंगल की ओर पलायन करने लगे। मगर अंग्रेजों, जमींदारों व साहूकारों के प्रति उनका आक्रोश भीतर ही भीतर बढ़ता गया, जो 71 साल बाद, 1855 में सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, फूलो-झानो के नेतृत्व में ‘संथाल हुल’ के रूप में उभरा।
तीस जून 1855 को प्रारंभ हुआ “संथाल हुल” एक व्यापक प्रभाव वाला युद्ध था। संथाल हुल इस मायने में खास था कि इसमें एक शक्ति थी जमींदार, सूदखोर महाजन और उन्हें संरक्षण देने वाले अंग्रेज तो दूसरी शक्ति थी आदिवासियों की।
अंग्रेजों के विरुद्ध छापामार युद्ध की शुरूआत भी हुई। इसकी परिणति 26 जुलाई 1855 को संथाल हुल के सृजनकर्ताओं में से प्रमुख व तत्कालीन संथाल राज के राजा सिदो और कान्हु को वर्तमान झारखंड के साहबगंज जिले के भोगनाडीह ग्राम में अंग्रेजों द्वारा खुले आम पेड़ पर लटकाकर फांसी दिए जाने से। वे ऐसा कर “संथाल हुल” को खत्म मान रहे थे, लेकिन यह तो महज शुरूआत थी। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक – हर तरह के शोषण के खिलाफ और जल-जंगल-जमीन की रक्षा व समानता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, फूलो-झानो के द्वारा शुरू किया गया हुल आज भी जारी है, जिसके अगुआ कालांतर में धरती आबा बिरसा मुंडा भी बने।
पाकुड़ का मार्टिलो टावर गवाह है इस आंदोलन का।रातों-रात बना यह मॉर्टिलो टावर। सन् 1855 में संथाल विद्रोह के वक्त अग्रेजों द्वारा बनवाए गए इस टावर के 157 वर्ष बीत चुके हैं। इसमें 52 छेद हैं, जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने फायरिंग कर उस दौरान तकरीबन दस हजार संथाल विद्रोहियों को रोका था। इसमें हजारों क्रांतिकारी शहीद हुए थे। इस आंदोलन ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए थे। मॉर्टिलो टॉवर से एक ओर जहां अंग्रेज गोलियों की बौछार करते थे, वहीं संथाल क्रांतिकारी अपने बचाव मेें महज पारंपरिक हथियार तीर-धनुष पर ही आश्रित थे।
सिद्धू तथा कान्हू दो भाइयों के नेतृत्व में 30 जून, 1855 ई. को वर्तमान साहेबगंज ज़िले के भगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिद्धू ने घोषणा की थी- करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो।इस आशय का प्रस्ताव भागलपुर के कमिश्नर को सौंपा था
आदिवासियों द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध किये गए विद्रोह को 'हूल क्रान्ति दिवस' के रूप में जाना जाता है। अंग्रेज़ों से लड़ते हुए लगभग 20 हज़ार आदिवासियों ने अपनी जान दी।1856 ई. में बनाया गया मार्टिलो टावर आज भी संथाल विद्रोह की याद ताजा करता है।तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी सर मार्टिन ने उक्त टावर का निर्माण कराया था।इतिहासकार बताते हैं कि जब संथालों द्वारा विद्रोह किया गया तो उन पर नजर रखने और प्रतिरोध करने के लिए अंग्रेजी सैनिकों ने मार्टिलो टावर का सहारा लिया।
इतिहासकार हंटर की पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेज़ों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इसमें करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी।
हूल क्रान्ति दिवस प्रत्येक वर्ष 30 जून को मनाया जाता है। भारतीय इतिहास में स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई वैसे तो सन 1857 में मानी जाती है, किन्तु इसके पहले ही वर्तमान झारखंड राज्य के संथाल परगना में 'संथाल हूल' और 'संथाल विद्रोह' के द्वारा अंग्रेज़ों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी।
इतिहासकारों के अनुसार संथाल परगना के लोग प्रारंभ से ही वनवासी स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी और सरल होते हैं। इसका ज़मींदारों और बाद में अंग्रेज़ों ने खूब लाभ उठाया। इतिहासकारों का कहना है कि इस क्षेत्र में अंग्रेज़ों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुज़ारी लगा दी थी। इसके बाद न केवल यहाँ के लोगों का शोषण होने लगा, बल्कि उन्हें मालगुज़ारी भी देनी पड़ रही थी। इस कारण यहाँ के लोगों में विद्रोह पनप रहा था।
"यह विद्रोह भले ही 'संथाल हूल' हो, परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेज़ों एवं उसके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। इस जन आंदोलन के नायक भगनाडीह निवासी भूमिहीन किंतु ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्र सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव थे।"
इन चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा, जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं, ने बताया है कि "जुमीदार, महाजन, पुलिस राजदेन आमला को गुजुकमाड़", अर्थात "जमींदार, महाजन, पुलिस और सरकारी अमलों का नाश हो।" 'बोंगा' की ही संथाल लोग पूजा-अर्चना किया करते थे। इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर स्थानीय मोहल्लों तथा ग्रामों तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल वृक्ष की टहनी को लेकर गाँव-गाँव की यात्राएँ की।
आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शास्त्रों से लैस होकर 30 जून, सन 1855 ई. को 400 गाँवों के लगभग 50,000 आदिवासी लोग भगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुज़ारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेज़ों ने, सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव- इन चारों भाइयों को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया; परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहाँ भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय प्राप्त हो गया था।
भागलपुर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी। इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेज़ों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेज़ों द्वारा इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी गई और जमकर आदिवासियों की गिरफ़्तारियाँ की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा पुरस्कारों की भी घोषणा की गई। बहराइच में अंग्रेज़ों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक 'एनल्स ऑफ़ रूलर बंगाल' में लिखा है कि "संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।"
जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। इतिहासकार हंटर की पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेज़ों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इस युद्ध में करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह ग्राम में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फ़ाँसी की सज़ा दे दी गई। इस प्रकार सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव, ये चारों भाई सदा के लिए भारतीय इतिहास में अपना अमिट स्थान बना गए।कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को ‘भारत का प्रथम जनक्रांति’ कहा था। आज भी 30 जून को भोगनाडीह में हूल दिवस पर सरकार द्वारा विकस मेला लगाया जाता है एवं विर शहिद सिदो-कान्हू को याद किया जाता है।
सामाजिक कार्यकर्ता दयामणि बरला का कहना है कि
1855 में जो हूल हुआ, उसकी वजह थी धन, धरती, धर्म, भात अौर इज्जत। इनके खिलाफ सिदो-कान्हू अौर उस क्षेत्र के हजारों लोगों ने संघर्ष किया।30 हजार लोग हूल विद्रोह के दौरान मारे गये।इतना बड़ा नरसंहार शायद ही कभी हुआ हो. आज भी जो विकास का मॉडल है, वह आदिवासी जनता के अनुकूल नहीं है।पहले हमारे विकास में अंग्रेज बाधक थे।अब सरकार है।
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